मौन हो कितने मुखर हम हो गए
शब्द मेरे भाव तेरे हो गए
इस अनोखे मेल में हम खो गए
नव रचित इस गीत में होकर मगन,प्राण संज्ञा शून्य करके सो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
एक अलसाई हुई सी आस थी
वेदना से युक्त कैसी प्यास थी
एककर संवेदनाएँ प्राण की, प्रणय के नव बीज जैसे बो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
जीत रक्तिम सुयश का क्या अर्थ है
शुष्क सरिता की तरह ही व्यर्थ है
अहम् के हाथों सृजित पथ तोड़कर,आज तृष्णा हीन सुख में खो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
विक्रम
शब्द मेरे भाव तेरे हो गए
इस अनोखे मेल में हम खो गए
नव रचित इस गीत में होकर मगन,प्राण संज्ञा शून्य करके सो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
एक अलसाई हुई सी आस थी
वेदना से युक्त कैसी प्यास थी
एककर संवेदनाएँ प्राण की, प्रणय के नव बीज जैसे बो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
जीत रक्तिम सुयश का क्या अर्थ है
शुष्क सरिता की तरह ही व्यर्थ है
अहम् के हाथों सृजित पथ तोड़कर,आज तृष्णा हीन सुख में खो गए
मौन हो कितने मुखर हम हो गए
विक्रम
बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंकर्मफल |
अनुभूति : वाह !क्या विचार है !
मौन मुखर हो गए... बहुत सुन्दर ....
जवाब देंहटाएंजब मौन मुखर होता है संवाद खुल जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर गीत ...